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Saturday, April 20, 2013

"शब्दहीन संवाद"




















हा........, आज ,
बहुत दिनों के बाद ,
तुमसे बात करने को जी चाहा
तो सोचा पूछ लू तुमसे, की ,
तुम कैसे हो, 
कुछ याद भी है तुम्हे
या सब भूल गए -----
वैसे,
तुम्हारी बातें मुझे


भूलती नहीं,
नहीं भूलते मुझे तुम्हारे वो अहसास
जो कभी सिर्फ मेरे लिये थे
नहीं भूलते तुम्हारे "वो शब्द"
जो कभी तुमने मेरे लिए गढ़े थे ----

तुम्हे जानकार आश्चर्य होगा
पर ये भी उतना ही सत्य है
जितना की तुम्हारा प्रेम,
की ,
"अब शब्द भी बूढ़े होने लगे है"
उनमे भी अब अहम आ गया है
तभी तो,
इस सांझ की बेला में,
जब मुझे तुम्हारी रौशनी चाहिए
वो भी निस्तेज से हो गए है
मैं कितनी भी कोशिश करू
तुम्हारे साथ की वो चांदनी रातें, वो जुम्बिश, वो मुलाकातें
जिनमे सिर्फ और सिर्फ हम तुम थे
उन पलो को महसूस करने की
पर इनमे अब वो बात नहो होती,------

कही ये इन शब्दों की कोई चाल तो नहीं,
या
ये इन्हें ये अहसास हो चला है
की इनके न होने से,हमारे बीच
एक मौन धारण हो जायेगा
और हम रह जायेंगे एक भित्त मात्र,
क्यूंकि अक्सर खामोशियाँ मजबूत से मजबूत रिश्तों में भी,
दरारे दाल देती है ------

तो मैं तुम्हे और तुम इन्हें (शब्दों को) बता दो
मैं कभी भी तुम्हारी या तुम्हारे शब्दों की मोहताज न रही
हमेशा से ही मेरी खामोशियाँ गुनगुनाती रही
चाहे वो तुम्हारे साथ हो या तुम्हारे बगैर
जानते हो क्यूँ , क्यूंकि ,
"शब्दहीन संवाद, शब्दीय संवाद से हमेशा ही मुखर रहा है" ------

अमर====

Monday, April 15, 2013

मैं अपनी ही लेखनी बन जाऊ



तुम्हारा ही कहना है
उजालो से डर लगता है
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं रात बन जाऊ !

बिखर जाऊ मैं शबनमी बूंदों सा
ये चाहत है गर तुम्हारी
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं पिघल पिघल जाऊ

टूट कर चाहू तुम्हे
चाहे जैसे धरती को रात रानी
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं टूट - टूट  जाऊ

साथ चल सकू हर पल तुम्हारे
गर यही चाहत हैं तुम्हारी
फिर तुम ही कहो
क्यूँ न मैं तुम्हारा साया बन जाऊं

तुम चाहते हो मैं कुछ न कहू तुमसे कभी
जैसे हो हर शब्द मेरा गूंगा
फिर तुम ही कहो
क्यों न मैं अपनी ही लेखनी बन जाऊ

बीते  मेरे , हर दिन, हर पल
तुम्हारी ही पनाहों में
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं तुम्हारी बाँहों में झूल झूल जाऊ

अमर====