आज बिखरा है सन्नाटा,
मेरे चारो ओर,
कोई भी नहीं है यहाँ,
सिवाय अकेलेपन के,
मेरे मन के रातों के झिंगुर,
भी जैसे खुद को चिढ़ा रहे हो,
खुद अपनी ही आवाज को सुनके,
अपना मन बहला रहे हो,
फैली है चारो ओर नीरवता,
कैसे करेगा कोई कविता,
शब्द भी निकलने से पहले,
सोचते है सौ बार,
बहार निकलकर गूजुँगा मै अकेला ,
या होगा बेड़ा पार,
हर बार यही सोचकर चुप रहता हूँ,
और बिखर जाता है सन्नाटा,
मेरे चारो ओर, मेरे चारो ओर ............................