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Thursday, February 13, 2014

देवदूत ---

यही कहीं 
बाँध कर, 
छोड़ा था मैंने 
तुम्हारी यादों को 

और यही कही 
तुमने भी,
लपेट कर सफ़ेद चादर में,
दफनाया था
मेरी यादों को,

मैं आज फिर से
लौट आयीं हूँ,
तुम्हारी यादों को
समेट कर
ले जाने को,

क्या तुम भी
लौट आओगे,
सब भूलकर
मुझे अपनाने,

याद रखना,
गलतियाँ करना
इंसानी फितरत है
और उन्हें माफ़ करना
"रूहानी"

और तुम कभी भी
मेरे लिए ,
कम नहीं रहे
किसी फ़रिश्ते से ................

अमर====

Tuesday, September 10, 2013


रुको तो जरा !
मैं देख तो लूँ ,
इन पीछे छूट जाने वाले अप्रतिम पलों में
क्या क्या पीछे छूट रहा है ,
तुम्हे तो बड़ी जल्दी रहती है
हमेशा से ,...
और हर बार
कुछ न कुछ छोड़ ही आते हो ,
मेरे पीछे
जिन्हें सहेजने के लिए
मुझे फिर से लौटना होता है
उन्ही पलों में, उसी जगह,
जिनमे तुम्हारी ,
कुछ बातें,कुछ यादें ,
तो कुछ तुम ही ......
बिखरे- बिखरे से रहते हो ,
जहा जाने के बाद
मेरा फिर से लौट आना
बड़ा मुश्किल सा लगता है,
इस बार मैं कोई हडबडाहट
नहीं करने वाला
और हा तुम्हे भी ऐसा कुछ नहीं
करने दूंगा
जिससे तुम मुझसे आगे निकल जाओ
और मैं वही उसी जगह
ढूंढता रहू तुम्हारे कदमो के निशान..........

अमर=====

Monday, July 8, 2013

=====अधूरी दास्ताँ =====



ये जो तुम 
बात बात पे रूठ जाते हो न,
अच्छी बात नहीं 
घर की छोटी -छोटी बातो को 
घर के बाहर तक ले जाते हो 
ये भी अच्छी बात नहीं ......
देख लेना 
एक दिन ऐसे ही दो -दिलो में 
तल्खिया बढ़ जाएँगी 
हम कितना भी चाहेंगे इन्हें दूर करना 
दरारे फिर भी रह जाएँगी ......

सुना है 
तुम तो बड़े समझदार हो 
बड़ी समझदारी की बातें करते हो 
और ये जरा सी बात तुम नहीं समझे 
जानते हो,
टूटे हुए खिलोने भी 
कभी-कभी जिंदगी भर की चोट दे जाते है 

कम से कम , 
मेरा -अपना न सही ,
घर के आँगन के बारें में तो सोचो 
उसके चीखते सन्नाटो के बारे में सोचो..... 
जो पौधे हमने मिलकर लगाये थे 
उनमे खिले फूलो की, 
मुस्कराहट के बारें में सोचो 
जो अभी ठीक से खिला ही नहीं 
उसकी पहली अल्हड मुस्कान के बारें में सोचो .......

पर, अब, शायद तुम कुछ सोचना नहीं चाहते 
तुममे अहम् आ गया है 
जिसकी वजह से 
अब तुम्हारी सोचने समझने की 
क्षमता भी जाती रही .....
तुम्हारी पल भर की जीत ने अँधा बना दिया है तुम्हे 
तुम्हे कुछ दिखाई नहीं दे रहा 
मदमस्त हो उस जीत के हर्षौल्लास में ....
और हो भी क्यूँ न 
तुमने उस जीत के लिए क्या कुछ नहीं किया 
क्या मेरा , क्या मेरे आँगन का 
सब कुछ तो दाव पर लगा दिया तुमने 
तुम तो बस जीत जाना चाहते थे 
कैसे भी ,किसी भी कीमत पर .........
पर इतना जान लो 
कुछ रिश्ते हम नहीं बनाते
वो उपर वाले की मर्जी से बनते है 
और उन्हें तोड़ने वाला कभी खुश नहीं रह सकता .......

आज नहीं तो कल
शायद तुम्हारे अक्ल पर पड़ा अहम् का पर्दा हट जाये 
तुम बहुत कुछ सोचो 
और तुम्हे कुछ न समझ आये 
तुम कितना भी हाथ पैर पटको 
और नतीजा कुछ न आये, 
समझ लेना, तुमने कुछ तो ऐसा किया है 
जो किसी को 
जिंदगी भर के लिए 
एक दर्द भरी दास्ताँ दे गया है 

तुम चाहो की सब फिर से पलट जाये
उस वक्त बस इतना समझ लेना 
की अब बहुत देर हो गयी !!........

=====अमर=====

Saturday, April 20, 2013

"शब्दहीन संवाद"




















हा........, आज ,
बहुत दिनों के बाद ,
तुमसे बात करने को जी चाहा
तो सोचा पूछ लू तुमसे, की ,
तुम कैसे हो, 
कुछ याद भी है तुम्हे
या सब भूल गए -----
वैसे,
तुम्हारी बातें मुझे


भूलती नहीं,
नहीं भूलते मुझे तुम्हारे वो अहसास
जो कभी सिर्फ मेरे लिये थे
नहीं भूलते तुम्हारे "वो शब्द"
जो कभी तुमने मेरे लिए गढ़े थे ----

तुम्हे जानकार आश्चर्य होगा
पर ये भी उतना ही सत्य है
जितना की तुम्हारा प्रेम,
की ,
"अब शब्द भी बूढ़े होने लगे है"
उनमे भी अब अहम आ गया है
तभी तो,
इस सांझ की बेला में,
जब मुझे तुम्हारी रौशनी चाहिए
वो भी निस्तेज से हो गए है
मैं कितनी भी कोशिश करू
तुम्हारे साथ की वो चांदनी रातें, वो जुम्बिश, वो मुलाकातें
जिनमे सिर्फ और सिर्फ हम तुम थे
उन पलो को महसूस करने की
पर इनमे अब वो बात नहो होती,------

कही ये इन शब्दों की कोई चाल तो नहीं,
या
ये इन्हें ये अहसास हो चला है
की इनके न होने से,हमारे बीच
एक मौन धारण हो जायेगा
और हम रह जायेंगे एक भित्त मात्र,
क्यूंकि अक्सर खामोशियाँ मजबूत से मजबूत रिश्तों में भी,
दरारे दाल देती है ------

तो मैं तुम्हे और तुम इन्हें (शब्दों को) बता दो
मैं कभी भी तुम्हारी या तुम्हारे शब्दों की मोहताज न रही
हमेशा से ही मेरी खामोशियाँ गुनगुनाती रही
चाहे वो तुम्हारे साथ हो या तुम्हारे बगैर
जानते हो क्यूँ , क्यूंकि ,
"शब्दहीन संवाद, शब्दीय संवाद से हमेशा ही मुखर रहा है" ------

अमर====

Monday, April 15, 2013

मैं अपनी ही लेखनी बन जाऊ



तुम्हारा ही कहना है
उजालो से डर लगता है
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं रात बन जाऊ !

बिखर जाऊ मैं शबनमी बूंदों सा
ये चाहत है गर तुम्हारी
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं पिघल पिघल जाऊ

टूट कर चाहू तुम्हे
चाहे जैसे धरती को रात रानी
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं टूट - टूट  जाऊ

साथ चल सकू हर पल तुम्हारे
गर यही चाहत हैं तुम्हारी
फिर तुम ही कहो
क्यूँ न मैं तुम्हारा साया बन जाऊं

तुम चाहते हो मैं कुछ न कहू तुमसे कभी
जैसे हो हर शब्द मेरा गूंगा
फिर तुम ही कहो
क्यों न मैं अपनी ही लेखनी बन जाऊ

बीते  मेरे , हर दिन, हर पल
तुम्हारी ही पनाहों में
फिर तुम ही कहो
कैसे न मैं तुम्हारी बाँहों में झूल झूल जाऊ

अमर====