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Saturday, October 9, 2010

'अंजाम - ए - वजू'





वो पूँछ बैठा मुझसे

मेरी मंजिल का पता

मै तो सफ़र में मशगूल था

मंजिल का मुझको क्या पता

बस ये ही मेरा कसूर था



मेरे सफ़र की शुरुआत थी या उसका अंत

कुछ भी तो मुझको न था पता,

मुझे तो साथ-साथ चलना था उसके

ये ही मेरी आरजू थी

मंजिल तो आनी ही थी

जब हमसफ़र ऐसा हसीन था





न जाने क्यू,

बीच सफ़र में उसके कदम डगमगाने लगे,

हाथों में पसीना, चेहरे पे भाव डगमगाने लगे

दस्तक देने लगी थी रुसवाईया

सफ़र में मेरे ,

" जो अभी शुरू ही हुआ था"

अभी तो और भी सफ़र

चाहता था तय करना

पर क्या पता था

ये मेरा उसके साथ आखिरी सफ़र होगा "

''मै कस के थामे खड़ा था,

अब तक जिस दामन को.

समझ के अपना दामन,

वो छुटने लगा था , मेरे हाथो से कुछ ऐसे

बन के बिगड़ रहे हो, तेज नशीली आंधियो में,

रेत के टीले जैसे''



मै सफ़र में अपने अभी चंद कदम ही चला था

जिसे अपनी मंजिल का धुंधला सा "अक्स " दिखा ही था

वो फना हो रहा था टुकडों - टुकडों में

ये ही उस सफ़र का 'अंजाम - ए - वजू' था

4 comments:

  1. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद
    बहुत देर से पहुँच पाया..............माफी चाहता हूँ..

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  2. Upendra ji rachna ka maan rakhne k liye Shukriya ...............

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  3. Sanjai ji rachna pasand aane k liye shukriya aur mafi to hume mangni chahiye ho sakta hai isse pahle abhi tak aapke layak likh hi na paya hu ...................

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