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Friday, April 30, 2010

"मोम का जिस्म "

मोम का जिस्म लेकर,

आग से खेला किया,

मुमकिन थी जीत मेरी,

पर हर पल हारा किया,



ये मालूम था इस खेल में,

हार होनी है मेरी ,

पर न था ये मालूम,

की जिसे जीता रहा हर पल ,

उसी ने मेरी "हार का सौदा " किया,



फिर भी अफ़सोस न होता हार का,

जो हार मेरी उसके आगोश" में होती,

पर वो बेरहम यहाँ भी ,

बस दूर से खेला किया ,



और मै "मोम का जिस्म " लेकर,

आग से खेला किया !

4 comments:

  1. वाह ! वाह ! अमरेन्द्र ! आपने तो कमाल कर दिया !बेहद खुबसूरत रचना ! बहुत बहुत बधाई !

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  2. aapka ashirwad se ab kuch sikh raha hu ..............sader pranam................

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  3. aisa hi to ho raha hai aajkal .jinse aap ummid lagaye rahate hai vahi aapko vifal karne ki yojanaye bhi banate hai.
    par aapki rachna baht hi prabhavshali v preranadaai hai.hardik badhai.
    poonam

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