वो रात ही ऐसी थी ,
वो बात ही ऐसी थी
अश्क उसकी आँख में भी थे ,
अश्क मेरी आँख में भी थे ,
समुंदर सा सैलाब था हमारी आँखों में ,
निकलने को बेताब ,
रोक रखा था किसी तरह हमने अपनी पलकों के बांधो से,
फिर भी वो बेताब था उन्हें तोड़कर बह जाने को ,
न चाहते हुए भी हम अश्को को बहने देना चाहते थे ,
अकेले में सारे बांध खुद तोड़ देना चाहते थे ,
रात भेर बैठे रहे आँखों में आँखे डालकर ,
हम बिन कहे ही सब कुछ कह गए ,
बना के आँखों को अपने लफ्जो का सहारा
सीधे उन के दिल में सब कुछ कह गए ....
हम रात भर बैठे रहे ....
कभी कुछ तो कभी कुछ सोचते रहे
सुबह को हम जिस मोड़ पे मिले थे कभी
उसी मोड पे हंसते हंसते अलविदा कह गए .....
अश्क उसकी आँख में भी थे ,
अश्क मेरी आँख में भी थे ,
अमरेन्द्र ! आपकी कविता बहुत खुबसूरत
ReplyDeleteहै ! एक दिन दुनिया जानेगी आपको !
बिना किसी की परवाह किये बस लिखते
रहिये !मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं !
thanx Badi Mummy......
ReplyDeleteकल 22/03/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल (संगीता स्वरूप जी की प्रस्तुति में) पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
Shukriya Yashwant ji
ReplyDeleteसुन्दर रचना... वाह!
ReplyDeleteबिछड़ने के वक्त से पहले का सुन्दर चित्रण...अश्कों के आने,रोकने ,बहने के भाव... अच्छे हैं
ReplyDeleteजुदाई से पहले का दर्द उमड़ रहा है रचना में
ReplyDeleteबहुत सुंदर और मर्मस्पर्शी रचना...
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