दूर, बहुत दूर,
मेरी यादों के झुरमुटों में
झीने कपड़े से बंधा
मेरी साँसों के सहारे
तेरी यादों का वो गट्ठर,
जिन्हें वक्त के दीमक ने
अंदर ही अंदर खोखला
कर दिया है,
बचा है जिसमे
सिर्फ और सिर्फ ,
मेरी अपने अकेले की साँसों का झीनापन
जो शायद , किसी भी वक्त,
निकल कर गठरी से
तड़पने लगे ,
वही कुछ दूर पे ही
बैठे है
भूखे ,प्यासे, कुलबुलाते
चील और गिद्ध ,
जो न जाने
कब से इसी आस में है
की कब मेरा बेजान होता जिस्म 'बेजान' हो
और वो अपनी भूख मिटा सके......
निरंतर,
दिन प्रतिदिन
खोखले होते बिम्ब,
दिखने लगे है....
झीना कपडा भी हो रहा है जार-जार
फिर भी लोग आकर्षित होते है,
मेरी ख्वाहिशे देखने को, ...
न जाने क्यूँ ....
शायद,
कैद करना चाहते हों, अपने-अपने कैमरो में
सजाना चाहते है
पेंटिंग्स की तरह, अपने घरो में
इससे पहले शायद ही, उन्हें
किसी के सपने
ऐसे भरे बाजार तड़पते दिखे हों
"तेरी यादों का वो गट्ठर"
अमर*****