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Monday, November 1, 2010

दुनिया के रंग


मै दुनिया के हसीन रंगों में, 
अपनी खुशी का रंग ढूँढता  रहा ,
कुछ तो जाने जाने पहचाने मिले ,
बाकियों का वजूद ढूँढता  रहा ,

जिस रंग को सब मिल रहे थे 
सब अपने चेहरे पे मढ़ रहे थे 
मैंने भी सबकी देखा देखी,
उस रंग  को चुन लिया ,

कोशिश की चढाने की,
उन्हें अपने रंग पे, 
कुछ तो चढ़ा  मेरे हिसाब  से,
कुछ अपने रंग में चढ़ गया, 

कुछ दिन तो चमकता रहा, 
फिर वो भी हसने लगे ,
मुझे मेरी वही सूरत 
फिर से दिखाने लगे,
 
दो दिन में ही उसने अपना रंग ,
दिखा दिया, 
मै जैसा था वैसा ही मुझको,
बना दिया, 

"ये सारें रंग,
चढ़ के भी मुझपे, 
बेरंग नजर आते है, 
ये दुनिया के रंग है,
जो दो पल में उतर जाते है,..............."

"सदियाँ गुजर गयी वो रंग नहीं उतरा, 
जहाँ पे सर रख कर वो  इक बार जो रोया था "

अमरेन्द्र "अक्स"

आखिरी सफ़र


सो जाने दो,
मुझे मेरे बिस्तर पे आज  ,
कई सदियों  से ,
सोया नहीं हूँ,
उन बाँहों  की आस में...............

बिस्तर  पे मेरे  ,
टाट का पैबंद है,
तो क्या हुआ, 
नींद फिर भी चैन की आएगी मुझको, 
सदियों से उसके अह्सांस ने, 
सोने नहीं दिया...............